दर्द…

कोई मोल ना रहा उनके दर्द का, यूँ के

वो रिश्तेदारों से अपना दर्द कहते थे…

दर्द तो सहते थे मग़र, उन्हें

जाने क्यूँ वो अपना हमदर्द कहते थे…

हमदर्द कभी दिल नहीं दुखाते,

उनके मग़र कुछ अलग थे…

ये दिल टटोलते भी थे,

दुखाते भी थे

और तोड़ते भी थे

सुनते भी थे बड़ी शिद्दत से,

सुनकर फिर आपस में बातें करते,

उड़ाते खिल्ली,

कहकर उन्हें शेख़चिल्ली…

देखते ही देखते दर्द नीलाम हो गया,

हरेक क़तरा दर्द का बदनाम हो गया…

उनका दर्द हर नुक्कड़ पर गाया गया

फिर भी समझ ना आया उनको,

वो नाते वालों को हमदर्द ही कहते रहे…

एक रोज़ फिर कमाल हुआ,

उनका दर्द जब चौखट के पार हुआ…

वो दर्द ख़ुद ही चिल्ला उठा,

अब उसे चोट गहरी लगी थी,

अब ज़ख़्म ज़्यादा हुआ था,

अब दर्द ख़ुद से बातें करने लगा,

रिश्ते समझने लगा…

अब पहनाता है लिबास वो ख़ुदको

बुद्धि का, अब लिखता है वो

एहसास अपने…

अब दर्द का अपना एक सुंदर जहान है,

अब दर्द में भी वो ज़िंदगी बुनते हैं,

अब दर्द अपने वो

किसी से नहीं कहते हैं…

#रshmi

©️therashmimishra.com

4 Replies to “दर्द…”

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