बदलाव चाहिए….

समाज लोगों ने बनाया, लोगों को रास ना आया..
उसे बदलने कोई आगे ना आया, प्रथाएँ इसकी अपना कर चल दिया..
ज़माना सारा दोष ‘समाज’ पर मढ कर चल दिया।

समाज को बदलाव चाहिए, ख़ुले विचारों वाले सरताज चाहिए..
कुरीतियाँ कितनी चली जाती हैं, इन्हें बुलंद आवाज़ वाला कोई शोर चाहिए..
हर दिन जाने कितनें कांड होंगे, प्रतिष्ठा के ढोंग में जाने कितने बर्बाद होंगे..
‘कुछ लोग’ पढा लिख़ा ख़ुदको कहते हैं, असल में ‘वही’ सबसे ज़्यादा बेढ़ंगी का ज्ञान परोसते हैं..

समाज की नींव अपनी ‘एजुकेशन’ के दम पर रख़ते हैं, दरअसल यहां कुछ लोग ‘एडुकेटेड’ अपनी नासमझी से कहे जाते हैं।
अब तक जाने कैसे कैसे पढे लिख़े देखे.. पढ लिख़ कर औरतों को पीटते अनपढ देख़े,
ग़लत से लडते नहीं, ग़लती के समर्थन में कई लबरेज़ देख़े..
औरतों के लिए रिवाज़ बनाते एेसे ही बहुत से दमख़म वालों को देखा..
ख़ुदको ‘ब्रॉड माइंड’ पुकारते अजीबों को देख़ा..
क्या हुआ अग़र किसी को दो चार गालियाँ दे डाली, गली के नुक्कड पर किसी को पीट डाला, ऱेप कर दिया, क़त्ल कर दिया..
ब्रॉड इसी तरह तो हो गये, अजी! एक ब्रॉड लेवल पर पहचाने जो जाते हैं।

शर्म इन्हें एेसी हरक़तों से नहीं आती पर एक लडकी के लिबास पर ज़रूर कहीं से दौड कर आ जाती है,
लड़कियाँ जहाँ खुले विचारों वाली और आज़ाद हैं, वहीं उनके पास वो एहसास ना है।
इस समाज को शर्म नफ़रतों और दंगों से नहीं आती, मग़र प्यार से आ जाती है..
शालीनता की बातें करते जो, वही मुलायम मिजाज़ के आदि हैं..
सभ्यता के आडम्बर में जाने कितने अत्याचार बाकी हैं,
कुल – धर्म के नाम पर देश की दुर्दशा हो आयी है,
औकात- औहदे के भार से भाई- भाई के जज़्बातों की मौत हो आई है,
छल के क़ायल चारों ओर घायल हैं..
मगर इनके बनाए नियम सब शराफ़त वाले, बिना आवाज़ किए मान लेने वाले और समाज की श़राफ़त एेसे नियम..
और जाने कैसे कैसे नियमों और कानूनों में इनकी श़राफ़त छिपी कहीं से ताकती है,
दबी दबी कहीं से छांकती है कुछेक की श़राफ़त, कुछ की कायरता और कुछ की चिंता..

आज़ादी की बात करते हैं, ग़ुलामी के ग़ुलाम हैं ..
जहाँ के वासी हैं वहीं विद्रोह से राग है,
ये कैसा प्रेम है, जाति पाती के बँधन में जकड़े हैं और विविधता में एकता पर नाज़ है..
देखें देश कब आज़ाद होता है, कब ऐसी सोच में सुधार होता है..

क्या एेसा एक समाज वाकई हममें से किसी ने चाहा होगा?
क्या एेसे ही लोग जीते रहेंगे समाज के एेसे नाम के एम्ब्लेम के साथ?

ख़ैर जाने दीजिए..
आप और मैं भी एेसे ही समाज का हिस्सा हैं, हम भी ख़िलाफ़त करते हैं, बग़ावत करते हैं..
पर जाने क्यों हम अकेले पड जाते हैं और सिर्फ़ अपनी बातें कहकर आगे निकल जाते हैं, इस इंतज़ार में कि कोई राजाराम मोहन राय फिर से आ जाए इन ज़िंदा कुरीतियों को जलानें के लिए।

कब तक हम बस सहते रहेंगे? जब तक हम इसका हिस्सा हैं?
क्यों सहते रहेंगे? सिर्फ़ इसलिए के हम इसका हिस्सा हैं?
शायद अब समाज और इसके नियमों से ऊपर उठने की बारी है..
शायद अब एक रास आने वाला समाज चाहिए..
शायद अब बदलाव चाहिए।

#रshmi

8 Replies to “बदलाव चाहिए….”

  1. I really liked the design of your blog. In this piece the problems in the society are well described and it’s true that the change is must. We get sad on the mishappenings, curse the culprits but it takes guts to take the initiative against them. Well written. Really motivating 🙂

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