अपनें जज़्बातों को दबाए रखना पडता था, अपनी आवाज़ को बंद रख़ना पडता था..
मेरे मन की सुननेे वाला कोई नहीं था, सबके मन का मग़र मुझे करना पडता था..
मुझे क्या चोट पहुँचाता गया, इससे किसी को कोई सरोकार नहीं था..
हर एक की चोट पर मरहम करना मग़र मेरा कर्तव्य बताया गया..
जब जब मैनें ख़िलाफ़त की, मुझे बग़ावती हो जाने के डर से दुत्कारा गया..
जब जब सर उठा कर मैनें चलना चाहा, मेरे सपनों को एडी तले रौंद कर रक्ख़ दिया..
मैनें आग़े बढना चाहा तो शादी करवा कर घर से निकाल दिया, मुझे माँ ने कुछ इसी तरह आगे बढा दिया..
मैनें जब अपनें मन की पति से कही, उसने अपनी माँ का हवाला देकर टाल दिया..
जब उसकी माँ से कहा मैनें, उन्होंने चूडी- बिछिया और बिंदी थमा कर टरका दिया..
फिर यही सोचती रह गई मैं, के मुझ में मैं ही हूँ या…
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