मैं हर वो औरत हूँ..

अपनें जज़्बातों को दबाए रखना पड़ता था,
अपनी आवाज़ को बंद रख़ना पड़ता था..
मेरे मन की सुनने वाला कोई नहीं था,
सबके मन का मग़र मुझे करना पड़ता था..
मुझे क्या चोट पहुँचाता गया इससे किसी को कोई सरोकार नहीं था,
हर एक की चोट पर मरहम करना मग़र मेरा कर्तव्य बताया गया..

जब जब मैनें ख़िलाफ़त की,
मुझे बग़ावती हो जाने के डर से दुत्कारा गया..
जब जब सर उठा कर मैंने चलना चाहा,
मेरे सपनों को एड़ी तले रौंद कर रक्ख़ दिया..
मैनें आग़े बढ़ना चाहा तो शादी करवा कर घर से निकाल दिया,
मुझे माँ ने कुछ इसी तरह आगे बढ़ा दिया…

मैंने जब अपनें मन की पति से कही,
उसने अपनी माँ का हवाला देकर टाल दिया…
जब उसकी माँ से कहा मैनें,
उन्होंने चूड़ी-बिछिया और बिंदी थमा कर टरका दिया…
फिर यही सोचती रह गई मैं, के मुझ में मैं ही हूँ या कोई और मुझे जी रहा है?
मेरे तौर-तरीकों के फ़ैसले मेरे अलावा क्यों हर कोई कर रहा है?
मुझे अपनी छोड कर दुनियाँ जहान की इज़्ज़त करना सिख़ाया गया..
हाँ, मुझे हर बार बेइज़्ज़त किया  गया।

मैं हर वो औरत हूँ जिसने अपनी ज़िंदगी दूसरों को दे दी…
मैं हर वो औरत हूँ जिसनें अपने सपनों को बेमौत ही मौत दे दी…
मैं हर वो औरत हूँ जिसके लिये काम भी एकमत से घोषित किये जाते हैं…
घर में ख़ुशी मेरे अच्छा ख़ाना बनाने से आती है और कलह भी ख़राब ख़ाना बन जाने से होती है…
मग़र मैं वो नहीं हूँ जो तुम्हें दिखाई देती हूँ, मैं तो वो हूँ जो ख़ुद से भी छिपकर रहती हूँ…
मुझमें अब भी कुछ कर गुज़रनें की चाह बाक़ी है, मग़र मैं उसे दबा कर रख़ती हूँ…
मुझमें अब भी समंदरों को पार करने की लहर जागी है, मग़र मैं हर अरमान को सुलाकर रख़ती हूँ…

कहने को तो मैं नारी हूँ इक्कीसवीं सदी की, पर आज भी पति के निर्णयों से बंध कर रहती हूँ…
इससे क़म सज़ा और क्या होगी मेरे ‘मैं’ होने की,
मुझसे मेरा अक्स छीन कर लोग कहते हैं ‘और कितनी आज़ादी चाहिये तुम्हें’ …

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मग़र मेरा सवाल अब भी एक ही है..

क्यों पिता तुम्हें मुझसे लगाव नहीं,
ऐसी भी क्या नफ़रत है तुम्हें के मुझे अपने घर रहने भी नहीं देते?
क्यों औरत होकर भी तुम मेरे दर्द को नहीं समझ पाती माँ,
तुम भी तो मेरे दौर से गुज़री होगी..

क्यों तुम इसे विकसित मानसिकता वाला देश कहते हो,
जो मुझे मेरी औकात की बातें बताता हो…
शर्म आती है मुझे ऐसे नियमों पर,
जो किसी को भी मुझ पर अपनी सोच थोंपने की आज़ादी देते हों..
क्यों कोई मेरे वजूद की कहानी छीन ले,
क्यों मेरी शख़्सियत को कोई अहमियत ना दे?

जहाँ इस युग में जाने कितनी महिलाएँ देश का गौरव हैं,
वहीं कुछेक झूठी औक़ात और अदब के रख़वाले भी हैं यहाँ,
जो ख़ुद को देश का मस्तक कहते हैं…
उन पर भी शर्म आती है मुझे,
जिन्हें मुझे औरत होने की सज़ा देनें में मज़ा आता है…
क्योंकि वो भी मेरा ही अंश हैं, मैं भी उन्हीं से बनी हूँ…
मैं हर वो औरत हूँ, जो आज भी बेवजह अपनें अस्तित्व पर शर्मसार हूँ।

#रshmi

Image Courtesy: Google Images.

11 Replies to “मैं हर वो औरत हूँ..”

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